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इंजीनियर से बने किसान, गांव में शिक्षा, स्वास्थ्य और खेती से जुड़ी तकनीक लाने का किया काम

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उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के रहने वाले डॉ जय नारायण तिवारी अपने क्षेत्र में कृषि वैज्ञानिक के नाम से प्रसिद्ध है। हालांकि वह एक इंजीनियर हैं लेकिन कृषि में योगदान देने के कारण यहां रहनेवाले लोगों के द्वारा उन्हें कृषि वैज्ञानिक का उपनाम दिया गया है। उन्होंने अन्य किसानों को खेती के नई तकनीक के बारे में जानकारी दी। उनसे प्रेरित होकर लोग नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। सन् 1950 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में उनका जन्म हुआ। उन्होंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से साल 1971 में सिरामिक इंजीनियरिंग में बीटेक किया। वह ओडिशा में डालमिया ग्रूप के रिफैक्ट्री डिवीजन में साल 2016 तक अपनी सेवाएं दी। डॉ तिवारी कहते हैं कि यहां के लोगों को जागरूक करने की जरूरत है ताकि वे खेती के लिए नई तकनीक का इस्तेमाल करें।

उनके पिता रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। उनके पिता नौकरी के साथ अपने खेतों में अनाज उगाया करते थे। अपने पिता को देखकर ही डॉ. जय नारायण तिवारी को खेती में दिलचस्पी है। वे डालमिया ग्रुप के रिफैक्ट्री डिवीजन के सीईओ पद से साल 2016 में रिटायर हुए। इसके बाद उन्होंने अपने गांव आकर 35 एकड़ की जमीन पर खेती के नई तकनीकों की मदद से खेती करने की शुरुआत की। वे अपने जिले के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर का इस्तेमाल करना शुरु किया। उन्होंने बताया कि पहले दो तरीकों को फ्लडिंग मेथड कहा जाता है जिनमें फ्लडिंग मेथड से पानी डालते हैं जिससे यह पानी सतह के 5 या 6 इंच नीचे तक चला जाता है जबकि फसल के जड़ के लिए 3 या 4 इंच तक पानी काफी होता है। वहीं स्प्रिंकलर के माध्यम से पानी डालने पर 3 इंच तक ही पानी जाता है और लगभग 40 प्रतिशत तक पानी की बचत भी होती है।

इस कार्य के लिए उन्हें जिला प्रशासन की ओर से सम्मानित भी किया गया है। विभिन्न किसान मंचों पर उन्हें बुलाया भी जाता है जहां वे किसानों को नई तकनीक से खेती के बारे में जानकारी देते हैं। इसके अलावा क्षेत्र के कई किसानों ने डॉ. तिवारी के अनुभव और मार्गदर्शन के लिए उनसे संपर्क किया है। उनके क्षेत्र में धान की अधिक खेती होती है जिसके लिए अधिक पानी की जरूरत होती है। समय पर पानी की आपूर्ति की वजह से किसानों को परेशानी भी होती है। डॉ. तिवारी ने इसका हल ढूंढ लिया है। वह सीधी बुआई के बारे में अपने जिले के लोगों को बताया और लागू भी किया।

डॉ तिवारी कहते हैं धान की सीधी बुआई से कम सिंचाई में भी धान की पूरी पैदावार मिलती है। सीधी बुआई में जीरो टिलेज से धान के बीज की सीधी बुआई की जाती है जिससे खर्च के साथ मेहनत भी कम करनी पड़ती है। इसमें पानी की कम खपत होती है और मिट्टी की बार-बार जुताई नहीं करनी पड़ती है। कई लोग उनसे सलाह लेने भी आने लगे हैं। वह अपने जिले के दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने खेती के लिए बाइंडर रीपर मशीन का इस्तेमाल करना शुरु किया। रीपर बाइंडर एक ऐसी मशीन है जो फसल को काटकर बंडल बनाकर खेत में छोड़ देती है। कटाई के बाद इन बंडलों को उठाकर थ्रेशर से मड़ाई की जाती है।

डॉ. तिवारी अपने जमीन के एक तिहाई हिस्से में ऑर्गेनिक खेती से छह प्रकार के सुगंधित चावल, गेंहू और मूंग दाल उगाते हैं। इन छह प्रकार के चावल में ठाकुर भोग, काला नमक और तेलंगना सोना चावल शामिल है। वे साल में करीब 4 टन ऑर्गेनिक चावल उगा रहे हैं। बनारस, गोवा, दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों के लोग भी उनके चावल खरीदते हैं। वह कहते हैं लोगों में जानकारी और जागरुकता की कमी के कारण कारण ऑर्गेनिक फसल को फिलहाल फ्री-फ्लो मार्केट नहीं मिल पाया है।

वह अपने जमीन पर गिलोय, अतिबला, शतवार, पत्थरचट्टा, चिराय, धतुरा जैसे औषधीय पौधे भी उगा रहे हैं। वे अपने स्तर से पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे रहे हैं। जल संकट से निपटने के लिए उन्होंने रेन वॉटर हार्वेस्टिंग से पानी स्टोर करना शुरु किया है। वह अपने जिले के पहले व्यक्ति हैं जिनके पास अपना खुद का रेन हार्वेस्टिंग टैंक है। डॉ. तिवारी ने 65 वर्ष में पीएचडी की डिग्री हासिल की। उन्होंने बताया कि एक प्रॉजेक्ट के संबंध में उन्होंने पीएचडी करने का फैसला किया। दरअसल स्टील बनाने के लिए कोक का इस्तेमाल होता है जिससे कार्बन डायऑक्साइड उत्पन्न होता है।

वह बताते हैं कि भारत सरकार के एक प्रॉजेक्ट में ब्लास्ट फर्नेस में कोक से निकलने वाले कार्बन डायऑक्साइड को कम करने के लिए कोक की मात्रा घटाने के लिए रिसर्च करना था। यह एक बहुत ही महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था जिसके लिए अध्ययन के साथ-साथ पीएचडी की डिग्री होने से काम करने में काफी सुविधा होती। उन्होंने फिर से पढ़ने का निर्णय लिया। इतनी अधिक उम्र में फिर से पढ़ाई करना काफी ज्यादा मुश्किल भरा था। वे बताते हैं कि पहले दिन जब कॉलेज के क्लास में पहुंचे थे तो स्टूडेंस को लगा था कि वह पढ़ाने आए हैं। धीरे-धीरे वे उन बच्चों के ग्रूप में जम गए और बच्चों ने उनकी काफी मदद भी की।

वह नौकरी भी करते थे जिसकी वजह से वह क्लास देर से पहुंचते थे। ऐसे में उनके दोस्त उन्हें क्लास में पढ़ाए गए टॉपिक्स और नोट्स दिया करते थे। उन्होंने 65 वर्ष की उम्र में 2015 में एनआईटी राउरकेला से मेटालर्जिकल एंड मैटेरियल्स इंग में पीएचडी की डिग्री हासिल की और रीसर्च पूरा करने के लिए एनआईटी की टीम से जुड़े रहे। वह अपने इस सफलता का पूरा श्रेय अपनी पत्नी, कुमुद तिवारी और बच्चों को देते हैं। डॉ. तिवारी की चार बेटियां हैं।

उन्होंने रिटायरमेंट के बाद उन्होंने सोनभद्र में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करने का सोचा जिससे स्थानीय लोगों को फायदा हो। उन्होंने अपनी डॉक्टर बेटी और दामाद की मदद से सोनभद्र में होमियोपैथी फार्मेसी कॉलेज खोला। उस कॉलेज में होमियोपैथी दवाओं के बारे में पढ़ाया जाता और साथ ही दवाइयां बनाना भी सिखाया जाता है।

इस कॉलेज का नाम उन्होंने अपनी चारों बेटियों के नाम के शुरुआत अक्षर एस पर रखा है। यह कॉलेज उत्तर प्रदेश होम्योपैथी मेडिसिन बोर्ड लखनऊ से एफिलिएटेड है। उनके कॉलेज खोलने की योजना पर कई लोगों ने मजाक उड़ाया लेकिन वे पीछे नहीं हटे। पहले बैच में 5 बच्चों ने दाखिला लिया था। यह कॉलेज का दूसरा बैच है, जिसमें पूरे जिले से 17 बच्चों ने दाखिला लिया है, जिनमें से 8 लड़कियां हैं। कई लड़कियां असुरक्षित महसूस होने की वजह से पढ़ाई छोड़ देती हैं। इसके लिए उन्होंने अपने घर में ही हॉस्टल की व्यवस्था भी की है जहां लड़कियां आराम से रहकर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती हैं।

डॉ. तिवारी कृषि और शिक्षा में बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं तो वहीं उनकी पत्नी अपने कौशल से गांव की स्थानीय महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रही हैं। कुमद तिवारी के हाथों के बने अचार आस-पड़ोस में काफी प्रसिद्ध हैं जिसकी वजह से लोगों ने संपर्क कर अचार बनाने का ऑर्डर दिया। उन्होंने गांव की कुछ महिलाओं को अचार बनाने की ट्रेनिंग देना शुरु किया है। तैयार किए हुए अचार बनारस के मशहूर रेस्तरां में सप्लाई किए जाएंगे। डॉ तिवारी कहते हैं कि आने वाले वर्षों में वह होम्योपैथी से संबंधित एक हर्बल गार्डन तैयार करने और कृषि में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पाद कम करके कार्बन क्रेडिट प्राप्त करने की दिशा में भी सोच-विचार कर रहे हैं।