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भारत-चीन तनाव: अमरीका ने सैनिकों की हिंसक झड़प पर इतनी देर से मुंह क्यों खोला?
भारत और चीन के बीच मौजूदा तनाव की स्थिति पर अमरीका की ओर से देर से प्रतिक्रिया आई है. अमरीका ने 19 जून को प्रतिक्रिया देते हुए अपनी संवेदना जताई है.
गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच 15-16 जून की रात हिंसक झड़प हुई थी. इस हिंसक झड़प में 20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि हुई और चीन की ओर से अभी तक किसी भी तरह के नुक़सान की बात नहीं कही गई है.
अमरीका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने प्रतिक्रिया दी है, “हम चीन के साथ हाल में हुए संघर्ष की वजह से हुई मौतों के लिए भारत के लोगों के साथ गहरी संवेदना जताते हैं. हम इन सैनिकों के परिवारों, उनके आत्मीय जनों और समुदायों का स्मरण करेंगे. ऐसे समय जब वो शोक मना रहे हैं.”
पुराने अनुभव ये बताते हैं कि भारत और चीन के बीच तनाव की स्थिति बनने पर अमरीका तत्काल प्रतिक्रिया देता रहा है. 5 मई से भारत और चीन के बीच मौजूदा तनाव की स्थिति बननी शुरू हुई है.
अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मई के आख़िरी हफ़्ते में मध्यस्थता की पेशकश भी की थी. इससे पहले कई बार वो भारत और पाकिस्तान के बीच भी मध्यस्थता की पेशकश कर चुके हैं.
दक्षिण एशिया में अमरीका अपनी मज़बूत कूटनीतिक मौजूदगी को लेकर हमेशा सजग रहा है इसलिए वो भारत-पाकिस्तान या फिर भारत-चीन के बीच तनाव की स्थिति में इस तरह की पेशकश करने से पीछे नहीं हटता.
लेकिन पिछले कई सालों से क्षेत्र में चीन के बढ़ते हुए प्रभावों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अमरीका इस क्षेत्र में अपनी स्थिति को लेकर संशय में दिखाई पड़ रहा है.
बीबीसी के रक्षा और कूटनीतिक संवाददाता जोनाथन मार्कस यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के अमरीकी अध्ययन विभाग की रिपोर्ट के हवाले से लिखते हैं, “लंबे समय से विशेषज्ञ यह बात कहते आ रहे हैं कि चीन तेज़ी से अपनी फ़ौज का आधुनिकीकरण कर रहा है और वो एक उभरती हुई महाशक्ति है. लेकिन ऐसा लगता है कि यह विश्लेषण अब काफ़ी पुराना पड़ा चुका है. चीन उभरती हुई महाशक्ति नहीं है बल्कि यह वाकई में महाशक्ति बन चुका है. कई क्षेत्रों में अब चीन अमरीका को चुनौती दे रहा है.”
यह रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में अमरीकी रक्षा रणनीति “एक अभूतपूर्व संकट का सामना” कर रही है और अमरीका चीन के ख़िलाफ़ अपने सहयोगियों को अपने साथ बरक़रार रखने के लिए जूझ सकता है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक़, “अमरीका अब इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में उतना प्रभावी नहीं रह गया है और अपने पक्ष में शक्ति का संतुलन बरक़रार रखने की उसकी क्षमता तेज़ी से घटी है.”
अमरीका और चीन के हितों में टकराव
जेएनयू में दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर संजय कुमार भारद्वाज भारत-चीन संबंध और दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अमरीका के कूटनीतिक-राजनीतिक हितों पर विस्तार से बातचीत करते हुए कई बिंदुओं पर ध्यान दिलाते हैं.
वो बताते हैं, “पिछले छह-सात सालों से कई मुद्दों पर चीन भारत को उकसा रहा है. भारत ने जो कुछ अंदरूनी फ़ैसले लिए हैं वो इसकी एक वजह है. मसलन आर्टिकल 370 को लेकर जो फ़ैसला भारत ने लिया है और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया है, उसे लेकर चीन का यह रवैया है. दूसरा यह है कि चीन छह-सात सालों से इस कोशिश में लगा हुआ है कि भारत उसके बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के साथ जुड़े. इसके लिए वो अलग-अलग प्रस्ताव लेकर आ रहे हैं. चीन की नज़र वाकई में भारत समेत दक्षिण एशिया के पूरे बाज़ार में ख़ुद को पूरी तरह से स्थापित करने पर है. 1.6 अरब लोगों के इस बाज़ार में तेज़ी से मध्यम वर्ग उभर रहा है. इस प्रोजेक्ट के ज़रिए वो आसानी से इस बाज़ार तक पहुँच बनाने में कामयाब होंगे.”
वो कहते हैं, “दक्षिण एशिया से लगे जो विवादास्पद क्षेत्र हैं तिब्बत और शिनजियांग के, उनमें भी चीन चाहता है कि भारत के साथ संपर्क बढ़ाया जाए और इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित हो जाए ताकि इन क्षेत्रों में कोई भी अगर समस्या हो तो चीन राहत महसूस कर सके. अब समस्या यह है कि चीन के इस महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट को लेकर भारत के साथ-साथ अमरीका भी चिंतित है. अमरीका नहीं चाहता कि दक्षिण एशिया में चीन का प्रभुत्व बढ़े.”
भारत से क्या चाहता है अमरीका?
लेकिन इस चिंता के बावजूद संजय भारद्वाज मानते हैं कि चीन और भारत कहीं न कहीं एक-दूसरे को अपना सहयोगी मानते हैं क्योंकि दोनों के हित आपस में जुड़े हुए भी हैं. हालांकि इसके साथ ही भारत यह चाहता है कि चीन का प्रभाव इस प्रक्रिया में कम से कम हो.
वो कहते हैं, “लेकिन अमरीका कुछ दिनों से इस कोशिश में लगा हुआ है कि भारत इंडो-पैसिफ़िक गठबंधन में शामिल हो. इसी के तहत क्वाड (द क्वाड्रिलैटरल सिक्युरिटी डायलॉग) का कॉन्सेप्ट आया. अमरीका भारत को अपने प्रभाव में रखना चाहता है. अब यह बात तो पिछले कुछ सालों में साफ़ हो गई है कि अमरीका और चीन के बीच शीत युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है और इसमें अमरीका भारत के अंदर अपने हितों को साधने की संभावना देखता है. इन्हीं बातों को लेकर अमरीका और भारत के बीच पिछले कई सालों में रणनीतिक साझेदारी मज़बूत हुई है. 2005 का असैन्य परमाणु क़रार और 2016 का लॉजिस्टीक एग्रीमेंट इसी को ध्यान में रखते हुए हुआ. इन बातों को लेकर चीन नाराज़ है.”
प्रोफ़ेसर संजय भारद्वाज आगे कहते हैं, “इस बीच अमरीका चाहता है कि भारत और चीन के बीच आपसी हितों को लेकर किसी भी तरह की कोई आम सहमति ना बन पाए और टकराव की स्थिति बनी रहे. कुछ दिन पहले ही अमरीका ने मध्यस्थता की भी पेशकश की थी. मौजूदा हालात में अमरीका यहीं देखने की कोशिश कर रहा है कि भारत और चीन के बीच यह तनाव किस हद तक जा रहा है. इसलिए वो बड़ी सावधानी से इस तनाव को लेकर अपना बयान दे रहा है.”
अमरीका चीन से रिश्ता सुधारना चाहता है?
अमरीका हाल के दिनों में कोरोना की वजह से चीन के साथ तल्ख़ हुए अपने रिश्ते को सुधारने की कोशिश में भी लगा हुआ है क्या इस लिहाज़ से भी अमरीका की देरी से आई प्रतिक्रिया को देखना चाहिए.
इस पर प्रोफ़ेसर संजय भारद्वाज कहते हैं कि अमरीका और चीन में टकराहट किसी एक मुद्दे को लेकर नहीं है. इसलिए सिर्फ़ कोरोना ही नहीं बल्कि ट्रेड और तमाम दूसरे मुद्दों को लेकर भी दोनों में तक़रार बना हुआ है फिर चाहे वो हॉन्गकॉन्ग, ताइवान या तिब्बत का मुद्दा हो. इसलिए यह कहना मुश्किल है.
अमरीकी चुनाव भी है अहम मुद्दा?
अमरीका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन की किताब ‘द रूम व्हेयर इट हैपन्ड’ में कहा गया है कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मदद लेने की कोशिश की थी.
उनकी किताब में कहा गया है, “ट्रंप चीन के साथ भी फिर से राष्ट्रपति चुने जाने की संभावना को बढ़ाने के हिसाब से डील कर रहे थे. ट्रंप चाहते थे कि चीन अमरीकी किसानों से कृषि उत्पाद ख़रीदे.”
तो क्या अमरीका की देर से आई प्रतिक्रिया को इस लिहाज़ से भी देखा जा सकता है?
प्रोफ़ेसर संजय भारद्वाज इस पर कहते हैं, “चुनाव का ख़याल तो हर शासक रखता है. निश्चित तौर पर डोनाल्ड ट्रंप भी नहीं चाहते हैं कि चीन के साथ तल्ख़ हुए रिश्तों का असर उनके चुनाव पर पड़े. चीनी लोग अमरीका में अच्छी संख्या में हैं. भारतीय भी अच्छी संख्या में हैं. इसलिए चुनाव तो एक बड़ा मुद्दा है ही.”
वो कहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप को अगर चुनाव में दोबारा से जीतना है तो भारतीयों के साथ-साथ चीनियों के समर्थन का भी ख़याल रखना होगा.